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कहानी ‘ग्यारहवीं ए के लड़के’

~~लेखक: गौरव सोलंकी~~

यही वह कहानी है जिसके कारण भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रसिद्ध युवा लेखक गौरव सोलंकी के कहानी संग्रह को प्रकाशित करने में टालमटोल किया, बरसों बाद राजकमल प्रकाशन ने जिसको प्रकाशित करने का साहस दिखाया. क्या यह एक अश्लील कहानी है? पढकर देखिये- क्या सचमुच यह एक अश्लील कहानी है- जानकी पुल. —————————————————————————
हम वही देखते हैं, जो हम देखना चाहते हैं.
मैं भी सनकी था। जैसे सपना भी यह दिखता था कि दो दोस्तों के साथ सिनेमाहॉल में फिल्म देखने गया हूं और जब वे दोनों कतार में मुझसे आगे लगे हुए मेरा टिकट भी लेकर अन्दर घुस गए हैं तब मुझे याद आया है कि मैं अपनी चप्पल पीछे ही कहीं सीढ़ियों पर छोड़ आया हूं. मैं दौड़कर चप्पलों के लिए वापस लौटता हूं. जबकि चप्पल तीन साल पहले खरीदे जाने के वक्त सौ रुपए की थी और अब ज़्यादा से ज़्यादा पचास रुपए की रही होगी. पचास में भी कोई दुकान वाला नहीं लेगा, इसकी मैं शर्त लगा सकता हूं. और टिकट सत्तर रुपए की है.
वापस भीड़ को चीरते हुए मैं सीढ़ियों पर दौड़ रहा हूं, उस रिक्शा की तरफ जिसे मैं किसी सरकारी कॉलोनी से चलाकर यहां लाया था और मेरे दोस्त मेरे पीछे बैठे थे. (मैं आपको बता दूं कि सपने में भी मैं रिक्शे वाला नहीं था. हमें एक रिक्शा सड़क पर खड़ा मिला था. हमारे पास वक़्त कम था और चोरी की नीयत ज़्यादा)
तो रिक्शे की तरफ दौड़ते हुए मुझे स्कूल का कोई पुराना दोस्त मेरे पुराने नाम से पुकारता है. वह सरदार है. उसका अमरजीत जैसा कोई नाम था. उसकी दाढ़ी बेनहाए रूप से उलझी हुई है. वह पढ़ाई में होशियार था और इतने साल बाद भी सफेद शर्ट के साथ स्कूल की यूनिफ़ॉर्म की खाकी पेंट पहने हुए है.
मेरा ख़याल है कि कहानी अब शुरु की जानी चाहिए.
यदि मर्द ख़ूबसूरत हो सकते हैं तो वह तब ख़ूबसूरत था. हम लाख चाहते थे कि उसकी दाढ़ी-मूंछ और बाल काटकर उसे शाहिद कपूर बना दें लेकिन ऐसा नहीं कर पाते थे. उन्हीं दिनों उसके बड़े भाई की शादी हुई. बड़े भाई का बलजीत जैसा कोई नाम था. वह कोई काम नहीं करता था, दिन में तीन बार नियम से शराब पीता था और उसका मानसिक संतुलन या तो बिगड़ा हुआ था या कुछ ज़्यादा ही दुरुस्त. अमरजीत की भाभी का नाम रानी था. सबके एक-एक जोड़ी माता-पिता भी थे.
यदि चाँद पर दोपहर होती होगी तो सर्दी की दोपहर भी निश्चित रूप से होती होगी. रानी को देखकर लगता था कि वह उसी दोपहर से आई है. हम सब दोस्तों के लिए रानी भाभी ऐसा पटाखा थी जिसे हम अपनी छाती पर और बाकी ज़गहों पर फोड़ना चाहते थे. अमरजीत के सामने ही हम उनके स्तनों के कसीदे पढ़ते हुए मदहोश हुआ करते थे और अपनी फैंटेसियाँ सुनाया करते थे. अमरजीत पढ़ाकू किस्म का लड़का था और आई ए एस बनना चाहता था. वह कामुक गालियाँ नहीं दे पाता था और आखिर में अपनी किताबें उठाकर चला ही जाता था. ऐसा भी नहीं था कि बाकी लड़कों या अपनी ही भाभियों के बारे में हमारे इरादे कुछ पवित्र हों लेकिन रानी की बात ही कुछ और थी. मस्तराम की कहानियों में पच्चीस साल की शादीशुदा लड़की का कोई भी नाम हो, उन्हें पढ़ते हुए हमारे ज़ेहन में रानी की कलर्ड तस्वीर ही होती थी. हम तब ग्यारहवीं ‘ए’ में पढ़ते थे और हमें लगता था कि जल्दी ही ऐसा कोई दिन आएगा, जब धरती सूरज को छोड़कर हमारे चारों ओर घूमेगी. रानी भाभी ही क्या, मल्लिका शेरावत भी उन दिनों हमें दूर की कौड़ी नहीं लगती थी. हम एक अनजानी तरह से पत्थर होते जा रहे थे. हमारे आसपास या हमारे ख़यालों में भी जो नर्मी थी, उसे जब तक नहीं कुचल देते, हम परेशान रहते.
मेरे अलावा तीन और लड़कों ने रसीली बातें बनाने की सीमा लाँघकर रानी पर ट्राई मारी. उनमें से एक ही उनके घर की वह सीमा लाँघ पाया जहाँ अमरजीत की मोटी माँ सरबजोत दिन भर चारपाई पर बैठी रहती थी. दिन के अधिकांश समय वह स्वेटर बुनती या फिर ऊँघती रहती. तब, जब बलजीत धुत्त होकर पड़ा होता, सरबजोत की चारपाई घर के इकलौते दरवाजे के सामने सरबजोत रेखा बनी होती. उसने अपनी बाकी की जिंदगी शायद इसी मिशन पर लगा दी थी कि उसके बेवकूफ शराबी बेटे के अलावा कोई उसकी सुन्दर बहू की सुन्दरता को ‘उस’ तरह से न देख पाए.
लेकिन जिस तरह हर सेनापति की अपनी कमजोरियाँ होती हैं उसी तरह सरबजोत का मोटापा उसके मिशन का दुश्मन था. अन्दर या चौबारे पर ज़रा भी हलचल होने पर वह उठकर बैठ जाती और ‘रानी, रानी’ चिल्लाती रहती लेकिन रानी उस समेत घर में किसी से बोलती तक नहीं थी और हलचल के घटना स्थल तक पहुँचने में सरबजोत को कम से कम पाँच-छ: मिनट लगते. और आप तो जानते ही होंगे कि ग्यारहवीं ‘ए’ के लड़के पाँच-छ: मिनट में क्या क्या कर सकते हैं.
मेरे अलावा उस घर में दाख़िल होने वाला इकलौता लड़का सुखपाल था. वह सरदार था और रानी भाभी को सिख लड़के सख़्त नापसंद थे. वह कई बार उनके लिए बाज़ार से दस-दस किलो सामान लाया, उनके बालों में कंघी की, ज़रूरत पड़ने पर तीन-तीन सौ रुपए तक उधार दिए और भूल गया, केबल की कुंडी लगाई (एक बार तो उस वक़्त, जब केबल वाले ने चोरों से बचने के लिए तार में करंट दौड़ाया था और पौन सेकंड के अंतर से श्री सुखपाल बचे थे). मैं स्वीकार करता हूं कि सुखपाल उससे मेरी अपेक्षा कहीं ज्यादा प्यार करता था. इतना कि एक बार उन्होंने उसे अपने प्रेग्नेंसी टेस्ट की रिपोर्ट लेने भेजा था और वह ख़ुशी-ख़ुशी लाया था (जबकि उसने रानी को दो बार बस चूमा भर था और वह जानता था कि गर्भ का यह भय उसकी मेहरबानी नहीं है)
सुखपाल प्रेम में कमोबेश उतना महान था ही, जितना सतरह-अठारह साल के किसी लड़के की औकात होती है. बस उसकी दाढ़ी-मूँछ और केश उसकी कमज़ोरी थे जिन्हें वह हर शाम कटवाने की सोचता और सुबह तक सच्चे बादशाह से इजाजत न ले पाता. सुखपाल की कहानी इतनी जरूरी नहीं इसलिए मुझे पहले अमरजीत और शायना के बारे में आपको बता देना चाहिए. शायना मेरी हमउम्र बहन थी और ग्यारहवीं ‘बी’ में पढ़ती थी. ग्यारहवीं ‘बी’ में क्लास की सारी लड़कियाँ और कुछ भाग्यशाली तथा *** किस्म के लड़के थे. अमरजीत हमारी क्लास का सबसे होनहार लड़का था और सब मास्टरों को लगता था कि वह किसी दिन कुछ बड़ा उखाड़ेगा. उसे भी ग्यारहवीं ‘बी’ में रहने की विशेष सुविधा दी गई थी. लेकिन जिस तरह बहुत ख़ूबसूरत लड़कियाँ कई बार घुटनों में दिमाग लिए पैदा होती हैं और बहुत दिमागदार कई बार दुनिया की सबसे बदसूरत नाक लिए, सेनापति अमरजीत के घर की आर्थिक तंगी उसकी कमज़ोरी थी. उसे किसी चीज का शौक नहीं था लेकिन जब वह अपनी जरूरत की कोई किताब भी नहीं खरीद पाता था तो डिप्रेशन में चला जाता था. यह वज़ह मुझे डिप्रेशन में जाने के लिए दुनिया की आख़िरी वज़ह के भी बाद की वज़ह लगती थी. ख़ैर, जैसे अहिल्या का उद्धार करने राम आए, उससे कुछ अलग तरह से शायना अमरजीत की ज़िन्दगी में आई.
शायना ने ही मुझे पहली बार अमरजीत के चेहरे की चॉकलेटी बॉय वाली संभावनाओं के बारे में बताया था. यह भी क्लास की लगभग सभी लड़कियाँ अमरजीत पर इस हद तक फ़िदा हैं कि उसके साथ एक रात बिताने के लिए एक साल फेल होने की कीमत भी उन्हें टॉफी जितनी लगती है. मैं हैरान था. उस पूरी रात मुझे नींद नहीं आई. मैं हर तरह से अमरजीत का विलोम-शब्द था और अपनी क्लास की सब लड़कियों की ऐसी घटिया पसंद इसके बाद ग्यारहवीं ‘ए’ के लड़कों को पहले गहरी चिंता और बाद में अमरजीत-विरोधी भावनाओं से भर देने वाली थी. इसी के बाद हम उसके सामने उसकी भाभी को लेकर इतने बेशर्म हुए थे.
शायना ने कुछ दिन बाद मुझे बताया कि वे जो फेल होने को टॉफी समझने वाली लड़कियाँ थीं, उनमें शायना का नाम पहले नम्बर पर था. मेरी सगी बहन की पसंद ऐसी थी, शायद इसी तथ्य ने मुझे यह मान लेने के लिए प्रेरित किया कि ईश्वर नहीं होता. क्या होगा ऐसी दुनिया का, जहाँ माल लड़कियाँ अवकलन की किताब में ज़िन्दगी तलाश रहे बिल्कुल घटना-विहीन, यहाँ तक कि हादसा-विहीन लड़कों पर फ़िदा होती हैं?
सरबजोत उस दोपहर दरवाजे के आगे अपनी चारपाई लगाकर सो रही थी. दरवाजा खुला ही रहता था और कभी-कभी उसकी हमउम्र पड़ोसनें आते-जाते उससे पूछ लिया करती थीं कि वह ज़िन्दा है क्या? वह स्वेटर बुनते हुए ही सोई थी और ऊन के फन्दों में उलझी हुई सलाइयाँ उसके चेहरे पर पड़ी थीं.
मैं उसे लाँघकर भीतर घुसा. वह मेरी रानी से पहली मुलाक़ात थी. मैं उसकी इस बात से बहुत प्रभावित था कि वह घर में अचानक घुस आए अनजान लड़कों को देखकर चीखती नहीं थी. मैंने उसे बताया कि मैं सुखपाल की तरह के प्यार पर थूकता हूँ. इस पर वह खूब हँसी. मैंने बताया कि मैं न केबल के तारों में उलझूँगा, न दालें खरीदकर लाने में. यह एक तरह से मेरा परिचय था. मैं किसी नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जाता तब भी कुछ इसी तरह अपने बारे में बताता. रानी ने कहा कि वह देखना चाहती है कि मैं कितना बड़ा हो गया हूँ. मैंने कहा- अगली बार- और मैं बादशाहों की तरह लौटने लगा.
मैं बिल्कुल स्लो मोशन में सरबजोत को लाँघ रहा था कि मेरा पैर लगने से उसके ऊन के गोले हिले, उनसे आधी बुनी स्वेटर में फँसी सलाइयाँ और वे बिल्कुल एक तरह से उसकी दोनों आँखों में जा घुसीं.
उसके चीखने और खून की धार निकलने के बीच ही मैं भागा. मुझे एक पड़ोसन ने घर से निकलते हुए देखा और उसी समय सरबजोत की चीख सुनकर वह मुस्कुराई.
सरबजोत अंधी हो गई. उसके पति की हल बनाने की दुकान थी. उसके बाद सरबजोत के लिए वह हल के स्पर्श की दुकान हो गई. टीवी के सारे प्रोग्राम टीवी का आकार बन गए. उसकी जितनी भी यादें थीं, उनमें उदास हरा रंग भर गया. वह यहाँ तक कहने लगी कि गुलाब और गेंदे के फूलों का रंग हरा होता है. वह हवा की गति से पहचानती थी कि दरवाजे के सामने खड़ी है या दीवार के. वह वैल्डिंग की गंध से अपने पति को पहचानती थी, शराब की गंध से बलजीत को और किताबों की गंध से अमरजीत को. रानी के शरीर की कोई गंध उसे नहीं मिलती थी और चूंकि रानी किसी से बोलती भी नहीं थी इसलिए कुछ दिनों के बाद सरबजोत रानी को मरा मान बैठी. उसे लगने लगा कि जो चोर उसकी आँखों में सलाइयाँ घुसाकर भागा था, उसने उससे पहले भीतर रानी की हत्या कर दी थी. यह उसके दिमाग को इतना जमा कि उसने कभी इसकी पुष्टि की जरूरत भी नहीं समझी. शुरु के दो महीने उसकी बहन उसके पास आकर रही तो वह दिनभर यही सोचकर हैरान रहती थी कि साठ पार की उसकी बहन पूरे घर को कैसे सँभाल पा रही है जबकि वह उसके पास से भी कभी नहीं हटती.
जिस दिन बहन जा रही थी, सरबजोत ने उससे पूछा कि अब इस घर को कौन सँभालेगा?
बहन ने कहा- अब तक भी रब ने सँभाला है, आगे भी वही सँभालेगा.
अगले ही दिन चाय का कप पकड़ते हुए सरबजोत का हाथ रानी के हाथ से छू गया. उसे लगा कि यह रब का हाथ है. उसके हाथ से चाय का कप छूट गया (जिसके छींटों ने रानी के नए सलवार पर वे दाग लगाए, जिन्हें बाद में मैंने उतारा) और उसने रानी के सामने हाथ जोड़ लिए. आँसुओं की धार उसकी हरी फ़िल्म वाली आँखों से बह निकली.
– प्रभ जी, माफ़ करो मुझ पापिन को और मुझे अपने साथ ले चलो.
रानी ने बदले में उसके सिर पर हाथ फेरा. इसके बाद रानी ने सरबजोत की ज़िन्दगी में वह ज़गह पा ली जो पैंतालीस साल पहले उसके पहले प्रेमी ने साढ़े तीन मिनट के लिए पाई थी- ‘आप ही मेरे सब कुछ हो’ वाली ज़गह.
अगले दिन से जैसे ही उसे रानी के आसपास होने का आभास होता, वह अपने सारे पाप उसे बताने लग जाती जैसे इस तरह प्रायश्चित हो जाएगा. उसने रानी को अपने सब प्रेमियों के बारे में बताया, यह जोड़कर कि उसने कभी भी एक समय में एक पुरुष से प्यार नहीं किया. वह यह बताते हुए फूट-फूटकर रोई कि जब उसकी माँ का हाथ घास काटने वाले गंडासे में आकर कट गया था और ज़्यादा खून बह जाने से वह वहीं मर गई थी, तब वह पीछे अनाज वाले कमरे में घास काटने के लिए रखे गए लड़के के कपड़े उतार रही थी. उसने बताया कि कैसे बहन की शादी के दिन ही उसने गले लगते हुए अपनी बहन की सोने की चेन उतार ली थी, कैसे उसने अपनी गूँगी हो गई सास को एक हफ़्ते तक न अन्न दिया था, न पानी.
मेरी गंध से सरबजोत बेहोश हो जाती थी लेकिन जब मैं रानी के आगोश में होता तो उसे मेरे होने का पता भी नहीं चलता था. तब मैं ईश्वर का अंश होता था- ख़ुदा का बच्चा.
एक दिन, जब उसकी चारपाई के नीचे मैं और रानी गुत्थमगुत्था थे, तब सरबजोत ने पन्द्रह साल के उस लड़के के बारे में बताया जो बलजीत का दोस्त होने के नाते बीस साल पहले उनके घर में आता था और जिसे सरबजोत ने दिखाया था कि औरत कैसी होती है.
मुझे रानी ने यह दिखाया और समझाया. काश कि मेरे पास ऐसे शरीफ़ शब्द होते जिनमें मैं रानी की मेहरबानियाँ आपसे साझा कर सकता!
इस बीच मैंने और शायना ने तय किया था कि हम एक-दूसरे की मदद करेंगे. वह अमरजीत को एक किताब खरीदकर देने के बदले उसके कुछ घंटे माँगती थी और इस तरह मुझे और रानी को एकांत मिल जाता था. बलजीत का तो होना, न होना ऐसा था कि मैंने बहुत बार उसके सामने रानी को चूमा और इस पर वह खिलखिलाकर हँसा. वह मुझसे अक्सर विज्ञान की पहेलियाँ पूछा करता था. ऐसे सवाल कि सूरज क्यों उगता है, मौसम क्यों बदलते हैं और तारे दिन में कहाँ जाते हैं? वह दिन-ब-दिन इतना भोला होता जा रहा था कि उससे किसी को कोई ख़तरा हो ही नहीं सकता था. या तो उसके सवालों के जवाब देकर हम उसे चुप करवा देते या नहीं दे पाते तो उसे कमरे में बन्द कर देते. तब वह ग़ुलाम अली की ग़ज़लें सुनता और धीमे-धीमे रोता. उसने शराब पीना भी अपने आप ही छोड़ दिया था. मुझसे किया यह वादा भी उसने कभी नहीं तोड़ा कि मेरे वहाँ आने के बारे में वह किसी को नहीं बताएगा. इन सब चीजों का असर यह हुआ कि मुझे उस पर तरस आने लगा. वह पैंतीस साल का हट्टा-कट्टा आदमी मुझे और रानी को सिर्फ़ चार-छ: झापड़ मारकर ठीक कर सकता था लेकिन उसने हमसे कभी ऊँची आवाज़ में भी बात की हो, मुझे याद नहीं आता. रानी को भी उस पर प्यार आने लगा था. एक दोपहर जब मैं पहुँचा, वह उसका सिर अपनी गोद में रखकर उसे सुलाने की कोशिश कर रही थी.
– यह हमारा बच्चा है…
–रानी ने मुस्कुराकर मुझसे कहा और बलजीत का माथा चूम लिया.
–इसके बाद हम उसके सामने ऐसी-वैसी हरकत करने से बचने लगे. हममें एक नैतिकता सी जाग गई थी. हम उसके जागने के दौरान एक-दूसरे को छूते भी नहीं थे. वह उसके लिए खाने की अच्छी-अच्छी चीजें बनाती थी और मैं उसके लिए कॉमिक्स और ‘घरेलू चीजों से जादू सीखें’ जैसी किताबें लाता था. वह अपने छोटे भाई जितनी तल्लीनता से ही पढ़ने लगा था और जादू भी सीखने लगा था.
कुछ दिन उसने हमें ताश के पत्तों वाले जादू दिखाए. फिर वह अंगूर या अमरूद को गायब करने लगा. फिर उसने चम्मच को कटोरी और कटोरी को चम्मच में बदलना शुरु किया. फिर एक दिन जब मैं सरबजोत की चारपाई के पास से गुज़रा तो वह उठ बैठी और मुझे देखकर बोली- ओए लड़के, कहाँ घुस रहा है?
मैं वापस दरवाज़े की ओर भागा और बाहर निकल गया. मेरे बाहर आते ही बलजीत दौड़ा-दौड़ा आया- डरो मत, मैं दिन में दो मिनट के लिए उसकी आँखों की रोशनी ला सकता हूँ. अभी इससे ज़्यादा नहीं हो पा रहा…और वह रोशनी वापस खोते ही तुम्हें देखने वाली बात भूल जाएगी. अन्दर आ जाओ.
मैं अन्दर गया तो वह चारपाई पर लेटकर सो रही थी. क्या रोशनी वापस आने के दो मिनटों में मेरी गन्ध और उससे बेहोश होना भी भूल गई थी? हालांकि मेरे और रानी के चक्कर के लिए घातक था लेकिन मैंने चाहा कि उसकी आँखें ठीक हो जाएँ.
मैंने बलजीत को शाबासी दी और अब थोड़ी और महंगी किताबें उसके लिए लाने लगा. हम दोनों भाई-बहन अपने पैसे उन दोनों की भाइयों की किताबों पर ही खर्च कर रहे थे और बदले में मालूम भी नहीं कि कुछ पा भी रहे थे या नहीं. मैं तो शायद सुखपाल की तरह बनता जा रहा था, उसका हश्र पता होने के बावज़ूद. अब मुझे रानी के शरीर को पाने की कोई जल्दी नहीं रहती थी और मुझे उससे बातें करना अच्छा लगता था. कभी-कभी बहुत देर तक बातें करने के बाद मुझे लगता था कि मैं उससे ऐसे विषयों पर बातें कर रहा था जिन पर लड़कीनुमा लड़के करते हैं. हम टीवी सीरियलों और कपड़ों के डिजाइन पर भी बातें करते थे. मैं बिना कहे घर के कामों में उसकी मदद करने लगा था. सब्जियां खत्म होती देख खुद ही ला देता और पैसे कभी न लेता. इसी तरह एक दिन जब वह बहुत बीमार थी, मैंने उनके बाथरूम में अपने आपको उसका वही सलवार धोते पाया, जिस पर ईश्वर से पहले साक्षात्कार के दिन सरबजोत ने चाय गिरा दी थी. मैं सुखपाल को मक्खी की तरह बाहर की नाली में डाले जाते देख चुका था और ऐसा होने के लिए यहाँ तक नहीं आया था. मैंने तय किया कि मुझे लौटकर वही बनना होगा- ग्यारहवीं ‘ए’ का लड़का. उसी दिन घर लौटने पर मैंने शायना को अमरजीत के साथ अपने कमरे में बन्द पाया. इससे पहले भी दसियों बार मैं अपने घर में उसके होने को अनदेखा करता रहा था लेकिन उस दिन खिड़की आधी खुली थी और मेरा मन किया कि अन्दर झाँककर देखूं.
वह अमरजीत नहीं रह गया था. उसके बाल मुझ जितने छोटे हो गए थे और मेज़ पर शीशा उसके सामने रखकर शायना प्यार से उसकी दाढ़ी बना रही थी. मुझे जलन हुई. पता नहीं क्यों? मैं अपने कमरे में आकर लेट गया और शाम के खाने के वक़्त भी नहीं निकला.
हमारे माता-पिता ऐसी नौकरियाँ टाइप कुछ करते थे कि पापा मंगल और बुध को ही घर आते थे और मम्मी सोम-मंगल को. बाकी चार दिन मैं और शायना रहते थे, पचास साल के नौकर गोपाल के साथ जिसे हमारी हिन्दी समझ नहीं आती थी. बस वह खाना लाज़वाब बनाता था.
ग्यारहवीं ‘ए’ के लड़के किसी भी उम्र की औरत को मसलने के पैमाने पर ही जाँचते थे. रानी नि:संदेह 10 नंबर वाली थी और कई लड़के मेरी सफलता को देखकर जलते भी थे. प्यार में पड़ना ग्यारहवीं ‘ए’ के किसी भी लड़के के लिए ज़हर खाकर, गले में पुल से बाँधा हुआ फन्दा डालकर नदी में कूद जाने की सज़ा के बराबर अपराध था. ऐसा किसी ने किया नहीं था लेकिन सुन्दर शरीरों को पाने के लिए किसी को मार देना भी ग्यारहवीं ‘ए’ के संविधान के विरुद्ध नहीं था. मैंने ख़ुद को यह सब याद दिलाया लेकिन उससे पहले ही अमरजीत और बलजीत के पिता सरदार मलकीत सिंह मूलपुरा वालों की दुकान पर एक गुमनाम चिट्ठी आई, जिसमें मेरे और रानी के सम्बन्ध का सचित्र और सविस्तार वर्णन था. उन्होंने मुझे सड़क पर रोककर खूब मारा और जान से मारने की धमकी दी. मैंने भी पिटते पिटते कहा कि देख लूँगा.
अगले दिन, जब घायल मैं,रानी और बलजीत उनके घर में थे (सरबजोत भी, गुरु ग्रंथ साहिब के दोहे जपती और रोती हुई), तभी बलजीत ने कहा कि उसने नया जादू सीखा है. फिर उसने आँखें बन्द करके अपना हाथ हवा में आगे किया. एक मिनट बाद सरदार मलकीत सिंह उसके सामने खड़े थे.
– खाना खाओगे पापाजी या दुकान में खा लिया?
बलजीत ने आदर से पूछा. उन्होंने पानी पीने की इच्छा ज़ाहिर की. फिर कहा कि आजकल पीछे से लोहा खराब आ रहा है और लोग उन्हें गालियाँ देते हैं. रानी पानी लाई तो उन्होंने वहीं खड़े-खड़े पानी पी लिया. मेरी तरफ़ उन्होंने देखा भी नहीं.
फिर बलजीत ने उनसे पूछा कि क्या वे वापस दुकान जाना चाहेंगे? उन्होंने थके से स्वर में ‘हाँ’ कहा. बलजीत ने फिर आँखें बन्द कीं और हाथ हवा में आगे किया. सरदार मलकीत सिंह गायब हो गए. बाद में पता चला कि वे दुकान पर तो पहुँचे ही नहीं. उस दिन के बाद वे कभी दिखाई नहीं दिए. शायद उनकी गन्ध वहाँ तैरती रही क्योंकि सरबजोत कई बार उनका नाम ले-लेकर अपने घुटने के दर्द के बारे में कहती दिखाई देती थी.
बलजीत के जादू सीखने में कोई कमी रह गई थी. मलकीत सिंह को उसने गायब करके रवाना तो कर दिया लेकिन दूसरी तरफ रिसीव करने वाला कोई नहीं था. पुलिस में दर्ज रिपोर्ट में लिखवाया गया कि वे दोपहर में घर से…..
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अरुलाई पठाउनु होस् । :

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